सिद्ध मानि चालीसा

 छन्द- सुख मूल गुरु चापा-रज, सुखद अलौकिक धूल
मन के पाप विकार को, नारी तुरत समूल ।।
दुख दाता ज्ञानिदेब को, कहूं चालिसा सिद्धा
शनि कृपा से दूर हों, त्ताप कष्ट अरु शूल ।।
गुरु का स्मरण और गुरु की चरमृग-रज-धारग्ना प्रत्येक शुभ कार्य के आरम्भ
हेतु मंगलकारी होता है गुरु के चरणों की धुल सुख देने वाली जडी-बूटी के
समान है यह धूल अलौकिक है और मन के पप-विकारों को तुरन्त समूल नष्ट
कर देती है अब दुख के दाता धानिदेवजी के सिद्ध चालीसा का वर्णन करता हू।
शनिदेव की कृपा से ताप, कष्ट और शूल नष्ट हो जाते हैं

दोहे-

दु: घने मैं मन्दमति, शनि सुख-दुख के हेतु
सर्व सिद्धि, साफल्य दो, हरो कष्ट भव-सेतु
जग दारुण दुख बोलती, में एक हाया असहाय
विपद-सेना विपुल बडी, तुम बिन कौन सहाया।
दुख इतने अधिक हैं कि में मन्द बुद्धि उन्हें गिन नहीं पाता हूँ है शनि आप
ही दुख-सुख के कारण हैं आपको दुखों का कारक ग्रह कहा जाता है मुझ पर
कृपा को, सारी सिद्धिया और सफलताएं दो आप दुख रूपी भबसस्थार के सेतु
बनकर मुझको दुखों से पार लगा दो, दुखी से छुटकारा दिला दो यह संसार दुखों
की बेल है की जैसे बढती रहती है, संसार के दुख भी बढ़ते रहते हैं, वे घटने का
नाम नहीं लेते बिपति के सैनिकों की रोना बहुत बडी है तुम्हारे बिना और कौन
सहायता कर सकता है 7

चौपाइयाँ-

शनिदेव कृपालु रबि-नन्दना सुमिश्या तुम्हारा सुख-चन्दना।

नाश करो मेरै विश्नों का। कृपा सहारा दुखी जनों का।।

है तेजस्वी सूर्य के पुत्र शनिदेव आप महान कृपालु हैं तुम्हारा ध्यान और
स्मरण चन्दन के समान शीतलता और सुख ध्यान करता है मेरे विघों को नष्ट
कीजिए आपकी कृपा ही दुखी जनों का सहारा है

जप नाम सुमिरण नहीं कीन्हा। तभी हुआ बल बुद्धि हीना।।

विपद कोश कष्ट के लेखे रवि सुत सब तव रिस के देखे ।।

प्रारम्भ से ही आपका जप नहीं किया, नाम का स्मरण नहीं किया, तभी से में



श्री ऩवग्रह चालीसा


दोहा     श्री गणपति गुरुपद कमल, प्रेम सहित शिरनाय।
           नव-ग्रह चालीसा कहत, शारद होहु सहाय।।
           जय जय रवि शशि भौम बुद्ध, जय गुरु भृगु शनि राज।
           जयति राहु अरु केतु ग्रह, करहु अनुग्रह अाज।।
       
                            सूर्य-स्तुति
प्रथमहिं रवि कहं नावौं माथा । करहु कृपा जन जानि अनाथा।।
है आदित्य दिवाकर भानू। मैं मति मन्द महा अज्ञानू।।
अब निज जन कहं हरहु कलेशा । दिनकर द्वादश रूप दिनेशा।। 
नमो भास्कर सूर्य प्रभाकर । अर्क मित्र अघ ओघ क्षमाकर ।। 1 ।।

                                चन्द्र-स्तुती
शशि, मयक्ड, रजनीपति, स्वामी । चन्द्र, कलानिधि नमो नमामी।।
राकापति, हिमांशु, राकेशा । प्रणवत जन नित हरहु कलेशा।।
सोम, इन्दु, विधु, शान्ति सुधाकर शीत रश्मि, औषधी, निशाकर।।
तुम्हीं शोभित भाल महेशा । शरण-शरण जन हरहु कलेशा ।। 2।।

                                मङ्गल -स्तुति
जय जय जय मङ्गल सुखदाता। लोहित भौंमादित विख्याता।।
अंगारक कुज रुज ऋणहारी। दया करहु यहि विनय हमारी।।
है महिसुत छितीसुत सुखरासी । लोहितांग जग जन अघनासी।।
अगम अमंगल मम हर लीजै । सकल मनोरथ पूरण क्रीजै ।। 3।।

                              बुध-स्तुति
जय शशिनन्दन बुध महराजा। करहु सकल जन कहं शुभ काजा।।
दीजै बुद्धि सुमति बल ज्ञाना। कठिन कष्ट हरि हरि कल्याना।।
है तारासुत रोहिणि नन्दन । चन्द्र सुवन दुःख दूरि निकन्दन।।
पूज़हु आस दास कहं स्वामी । प्रणत माल प्रभु नमो नमामी।। 4।।

                            वृहस्पति-स्तुति
जयति जयति जय श्री गुरु देवा । करौं सदा तुम्हरो प्रभु सेवा।।
देवाचार्यं देव गुरू ज्ञानी। इन्द्र पुरोहित विद्या दानी।।
वाचस्पति वागीस उदारा। जीव वृहस्पति नाम तुम्हारा।।
विद्या सिन्धु अंगिरा नामा । करहु सकल विधि पूरण कामा । । 5।।
                          
                               शुक्र-स्तुति
शुक्रदेव तव पद जल जाता। दास निरन्तर ध्यान लगाता।।
है उशना भार्गव भृगुनन्दन। दैत्य पुरोहित दुष्ट निकन्दन।।
भृगुकृल भूषण दूषण हारी। हरहु नेष्ट या करहु सुखारी।।
तुहि पण्डित जोषी द्विराजा । तुम्हरे रहत सहत सब काजा ।। 6।।

                                 शनि स्तुति
जय श्री शनि देव रवि नन्दन । जय कृष्णे सौंरि जगवन्दन।।
पिङ्गल मन्द रौद्र यम नामा । बभ्रु आदि क्रोणस्थल लामा।।
बक्र दृष्टि पिप्पल तन साजा । छण महं करत रंक छण राजा।।
ललत स्वर्ण पद करत निहाला । करहु विजय छाया के लाला ।। 7।।

                                     राहु-स्तुति
जय जय राहु गगन प्रविसइया । तुम ही चद्रादित्य ग्रसइया।।
रवि शशि अरि स्वंर्भानु धारा । शिखी आदि बहु नाम तुम्हारा।।
सैहिंकेय निशाचर राजा । अर्धकाय तुम राखहु लाजा।।
यदि ग्रह समय पाय कहुं आवहु । सदा शान्ति रहि सुख उपजावहु ।। 8।।
                            केतु-स्तुति
जय जय केतु कठिन दुखहारी । निज जन हेतु सुमंगलकारी।।
ध्वजयुत रुण्ड रूप विकराला । शोर रौंद्रतन अधमन काला।।
शिखी तारिका ग्रह बलवाना। महा प्रताप न तेज ठिकाना।।
वान मीन महा शुभकारी। दीजै शान्ति दया उरधारी।। 9।।
                        
                       नवग्रह शान्ति फल
तीरथरांज प्रयाग सुपासा । बसै राम के सुन्दर दासा।।
ककरा ग्रामहिं पुरे-तिवारी । है दुर्वासाश्रम जन दुख हारी।।
नव-ग्रह शान्ति लिख्यो सुख हेतु । जन तन कष्ट उतारण सेतू।।
जो नित पाठ करै चित लावै । सब सुख भोगि परम पद पावै।।10।।
           दोहा   धन्य नवग्रह देवप्रभु, महिमा अगम अपार।
                    नित नव मंगल मोद गृह, जगत जनन सुखद्वार।।
                    यह चालीसा नवहु ग्रह, विरचित सुन्दरदास।
                    पढ़त प्रेम युत बढ़त सुख, सर्वानन्द हुलास।।



श्री शनि चालीसा


दोहा  -   जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।
             दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाश निहाल।।
             जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।
             करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज।।

चौपहियां

जयति जयति शनिदेव दयाला, करत सदा भक्तन प्रतिपाला।
चारि भुजा, तनु श्याम विराजे, माथे रतन मुकुट छवि छाजै।
परम विशाल मनोहर भाला, टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला।
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके, हिय माल मुक्त मणि दमके।
कर में गदा त्रिशूल कुठारा, पल बिच करैं अरिहिं संहारा।
पिंगल, कृष्णौ, छाया, नन्दन, यम, कौणस्थ, रौद्र, दुख भंजन।
सौरी, मन्द, शनि, दश नामा, भानु पुत्र पूजहिं सब कामा।
जा पर प्रभु प्रसन्न है जाहीं, रंकहुं राव करैं क्षण माहीं।
पर्वतहू तृण होई निहारत, तृण हु को पर्वत करि डारत।
राज मिलत बन रामहिं दीन्हो, कैकेइहुं की मति हरि लीन्हो।
बनहूं में मृग कपट दिखाई, मातु जानकी गई चतुराई।
लषणहीं शक्ति विकल करि डारा, मचिगा दल में हाहाकारा।
रावण की गति-मति बोराईं, रामचन्द्र सों बैर बढाई।
दियो कीट करि कंचन लंका, बजी बजरंग बीर की डंका।
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा।
हार नौलखा लाग्यो चोरी, हाथ पैर डरवायो तोरी।
भारी दशा निकृष्ट दिखायो, तेलहिं घर कोल्हू चलवायो।
विनय राग दीपक महं कीन्हो, तब प्रसन्न प्रभु है सुख दीन्हो।
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी, आपहुं भरे डोम घर पानी।
तैसे नल पर दशा सिरानी, मूंजी-मीन कूद गई पानी।
श्री शंकरहिं गहृो जब जाई, पारवती को सती कराई।
तनिक विलोकत ही करि रीसा, नभ उडि़ गयो गौरिसुत सीसा।
पाण्डव पर मैं दशा तुम्हारी, बची द्रोपदी होति उघारी।
कौरव के भी गति मति मारयो, युद्ध महाभारत करि डारयो।
तैसहि चारि चरण यह नामा, स्वर्ण लौह चांदी अरु तामा।
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं, धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं।
समता ताम्र रजत शुभकारी, स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी।
जो यह शनि चरित्र नित गावै, कबहुं न दशा निकृष्ट स्रतावै।
अदभुत नाथ दिखावैं लीला, करैं शत्रु के नशि बलि ढीला।
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई, विधिवत शनिग्रह शांति कराई।
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत, दीप दान है बहु सुख पावत।
कहत रामसुन्दर प्रभु दासा, शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा।

दोहे       पाठ शनिश्चर देव को, कीन्हो  विमल तैयार।
            करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार।।

सिद्ध शनि चालीसा

सिद्ध शनि चालीसा


छन्द-  सुख मूल गुरु चरण-रज, सुखद अलौकिक धुल।
          मन के याप विकार को, नासै तुरत समूल ।।
          द्रु:ख दाता शनिदेव की, कहूं चालिसा सिद्धा ।
          शनि कृपा  से दूर हों, ताप कष्ट अरु शूल।।

गुरु का स्मरण और गुरु की चरण-रज-धारण प्रत्येक शुभ कार्यं के आरम्भ
हेतु मंगलकारी होता है । गुरु के चरणों की धुल सुख देने वली जडी-बूटी के
समान है । यह धुल अलौकिक है और मन के पाप-विकारों को तुरन्त समूल नष्ट
कर देती है । अब दुख के दाता शनिदेवजी के सिद्ध चालीसा का वर्णन करता हूँ
शनिदेव की कृपा से ताप, कष्ट और शूल नष्ट को जाते हैं।

दोहे- दु:ख घने मैं मन्दमति, शनि सुख-द्रु:ख के हेतु।
        सर्व सिद्धि, साफल्य दो, हरो कष्ट भव-सेतु ।।
        जग दारुण दु:ख बेलड़ी, मैं एक हाय! असहाय ।
        विपद-सेना विपुल बड़ी, तुम बिन कौन सहाय ।।

दुख इतने अधिक हैं कि मैं मन्द बुद्धि उन्हें गिन नहीं पाता हूं । हे शनि ! आप
ही दुख-सुख के कारण हैं । आपको दुखों का कारक ग्रह कहा जाता है । मुझ पर
कृपा करो, सारी सिद्धियां और सफलताएं दो । आप दुख रूपी भवसागर के सेतु
बनकर मुझक्रो दुखों से पार लगा दो, दुखों से छुटकारा दिला दो । यह संसार दुखों
की बेल है । बेल जैसे बढती रहती है, संसार के दुख भी बढते रहते हैं, वे घटने का
नाम नहीं लेते । विपत्ति के सैनिकों की सेना बहुत बडी है । तुम्हारे बिना और कौन
सहायता कर सकता है


चौपाइयाँ- शनिदेव कृपालु रवि-नन्दन । सुमिरण तुम्हारा सुख-चन्दन।।
              नाश करो मेरै विघृो का । कृपा सहारा दु:खी जनों का।।
   
हे तेजस्वी सूर्य के पुत्र शनिदेव । आप महान कृपालु हैं । तुम्हारा ध्यान और
स्मरण चन्दन के समान शीतलता और सुख प्रदान करता है । मेरे विघृों को नष्ट
कीजिए ।

             जप नाम सुमिरण नहीं की‍न्हा । तभी हुआ बल बुद्धि हीना ।।
             विपद क्लेश कष्ट के लेखे । रवि सुत सब तव रिस के देखे ।।

प्रारम्भ से ही आपका जप नहीं किया, नाम का स्मरण नहीं किया, तभी से में
बल बुद्धि से हीन हूँ । आपके मात्र तनिक क्रोध से देखने भर से विपत्ति, कष्ट और
परेशानियों के अम्बार लग जाते हैँ

           क्रूर तनिक बभु की दृष्टि । तुरत कौं दारुण जप द्रु:ख-बृष्टि
           कृष्ण नाम जप "राम कृष्णा' । क्रोणस्थ मन्द हरैं सब तृछणा

शनिदेव की तनिक सी भी क्रूर दृष्टि घनघोर दुखों की वर्षा करने लगती है।
कृष्ण का नाम जपना, "शनि-शनि' कहना ही श्रेयस्कर हैँ । कोणस्थ, मन्द कहते
रहने से तृष्णाओँ का अंत होता है
         
           पिंगल, सौरि, शनैश्चर, मन्द । रौद्र, यम कृपा जगतानन्द।।
           कष्ट क्लेश, विकार घनेरे । विघृ, पाप हरो शनि मेरे।।

पिंगल, सौरि, शनैश्चर, मन्द, रौद्र, यम ( इन नामों के स्मरण से) जगत का
आनन्द प्राप्त होता है । है शनिदेव ! संसार में कष्ट और विकार बहुतायत से हैं । मेरे
पाप और विघृो को दूर कीजिए।
   
          विपुल समुद्र दुःख-शत्रु-सेना । कृष्ण सारथि नैया खेना ।।
           सुरासुर नर किन्नर विघ्धाधर । पशु, कीट अरु नभचर जलचर।।
           राजा रंक व सेठ, भिखारी । देव्याकुलता गति बिगाङ़ी।।


दुख रूपी शत्रुओं की सेना समुद्र सी विशाल है । है शनिदेव ! जैसे कृष्ण
अर्जुन के सारथी वने वैसे ही आप मेरी नैया के खिवैया बनकर मेरी नाव पार लगा
दो । देवता, राक्षस, किन्नर, विद्याधर, कीट, यशु नभचारी और जलचारी सभी को
आप दुख दे देकर उन्हें पीडित कर देते हो । राजा से रंक तक, सेठ से भिखारी तक
सबको दुख और व्याकुलता देकर आपने उनकी दुर्गति की है।

          दुःख, दुर्भिक्ष, दुस्सह संतापा । अपयश कहीं, घोर उत्पाता ।।
          कहीँ पाप, दुष्टता व्यापी । तुम्हरे बल दुःख पावै पापी।।
          सुख सम्पदा साधन नाना । तव कृपा बिन राख समाना।।

इस संसार में कहीं दुख है, कहीं दुस्सह संताप हैं । कहीं अपयश है, कहीं
घनघोर अनुशासनहीनता है । कहीं पाप, कहीं दुष्टता व्याप्त है । तुम्हारे बल से पापी
दुख पाता है । सुख-सम्पदा तथा नाना प्रकार के साधन आपकी कृपादृष्टि के बिना
राख के समान हैं।

          मन्द ग्रह दुर्घटना कारक । साढे साती से सुख-संहारक।.
          कृपा कीजिए दुःख के दाता । जोरि युगल कर नावऊ माथा।।

शनिदेव दुर्घटना के कारक हैं । इनके बिना कोई दुर्घटना सम्भव नहीं । साढेसाती
के द्वारा आप सुखों का संहार करके व्यक्ति को दुख देते हैं । हे दुख के दाता ! कृपा
कीजिए । दोनों हाथ जोड़कर मैं शीश झुकाता हूं।

            हरीश्चन्द्र से ज्ञानी राजा । छीन लिए तुम राज-समाजा।।
            डोम चाकरी, टहल कराईं । दारूण विपदा यर विपद चढ़ाई।।

हरिश्चन्द्र से ज्ञानी, तपस्वी और सत्यवादी राजा को भी शनि दशा में मुसीबतों
से गुजरना पड़ा । उनका राज-पाट भी छिन गया । डोम के घर उनको चाकरी करनी
पड़ी । दुखों पर दुख अाते चले गए । है शनि ! आप दुखों के स्वामी हैं । इनसे आप
ही पार पा सकते हैं।

           गुरु सम सबकी करो ताड़ना । बहुत दीन हुं, नाथ उबारना।।
           तिहुँ लोक के तुम दुःख दाता । कृपा क्रोर से जन सुख पाता।।

गुरु के समान ही दुखदेकर उसे ताड़ना द्वारा ज्ञान देते हो । है शनिदेव ! में
बहुत दीन दूं । मुझे दुखों से उबारिए । तीनों लोक में आप सभी को दुख देते हैं।
आपकी एक कृपा किरण जन को सुख प्रदान करती है।

         जौं, तिल, लोहा, तेल, अन्न, धन । तम उरद, गुड़ प्रिय मन भावन।।
         यथा सामथ्य जो दान करे । शनि सुख के सब भण्डार भरे।।
         जे जन करैं दुःखी की सेवा । शनि-दया की चखैं नित मेवा।।

जौं, तिल, लोहा और अन्न, धन, काले उड़द, गुड़ शनि को अति प्रिय हैं।
सामथ्य के अनुसार जो इन वस्तुओं का दान करते हैं, शनि उनके घर अन्न- धन का
भण्डार भर देते हैं । जो लोग दीन-दुखियों की सेवा करते हैं, वे नित्य ही शनि-दया
की मेवा चखा करते हैं । शनि उन्हें कभी पीड़ित नहीं करते।

          बुरे स्वप्न से शनि बचावें । अपशकुन को दूर भगावें।।
          दुर्गति मिटे दया से उनकी । हरैं दुष्ट-क्रूरता मन को।।
          दुष्ट ग्रहों की पीड़ा भागे । रोग निवारक शक्ति जागे।।

शनिदेव के स्मरण से बुरे स्वणों का दिखना बन्द हो जाता है । अपशकुन दूर
भाग जाते हैं । उनकी दया से मनुष्य दुर्गति से बचता है । दुष्ट ग्रहों की पीडा भाग
जाती है । मनुष्य में रोग निवारक शक्ति जाग्रत होती है।

            सुखदा, वरदा, अभयदा मन्द । पीर, पाप ध्वंसक रविनन्द।।
            दुःख, दावग्नि विदारक मंद । धारण किए धनुष, खंभ, फंद।।
           विकटट्टहास से कंपित जग । गीध संवार शनि, सदैव सजग।।
            जय-जय-जय करो शनि देव को । विपद विनाशक देव देव को।।

शनिदेव सुख देने वाले, अभय देने वाले, पाप और पीडाओं के ध्वंसक हैं।
दुख रूपी दावाग्नि को नष्ट करने वाले, धनुष, खंग और फंद धारण करने वाले हैं।
अपने विकट अट्टहास से शनि संसार को कंपित कर देते हैं । ऐसे विकट शनिदेव
की जय-जयकार करो, विपत्ति विनाशक देव की जय-जयकार करो।

        प्रज्जवलित होइए, रक्ष रक्ष । अपमृत्यु नाश मेँ पूर्ण दक्ष।।
        काटो रोग भय कृपालु शनि । दुख शमन करो, अब प्राण बनी।।
        मृत्यु भय के भगा दीजिए । मेरे पुण्यों को जगा दीजिए।।
        रोग शोक को जड़ से काटो । शत्रु को सबल शक्ति से डांटो।।

हे शनिदेव ! ज्योतिर्मय होइए । रक्षा कीजिए । अपमृत्यु के नाश में आप पूर्ण
दक्ष हैं । हे कृपालु शनि, रोग- भय को काटिए । दुख-दर्दों का शमन कीजिए । अब
मेरे प्राणो पर बनी है । रोग-शोक को जड़ से काट दीजिए । मेरे विरोधी को सबल
शक्ति से डांट दीजिए

      काम, अधि, लोभ, भयंकरारि । करो उच्चाटन भबन-पुरारि।।
      भय के सरि भूत भगादो । सुकर्म पुण्य की शबित्त जगादो।।
      जीवन दो, सुख दो, शक्ति दो । शुभ कर्म कृपा कर भक्ति दो।।

काम, क्रोध, लोभ महाभयंकर शत्रु हैं । है शिवभक्त शनिदेव ! इन सबका
उच्चाटन कीजिए । भय के सारे भूतों को भगा दीजिए । अच्छे कर्मों में मन की प्रवृत्ति
हो, ऐसी शक्ति दीजिए । है शनिदेव ! मुझे जीवन दीजिए, सुख और शक्ति दीजिए।
हमारे मन को अच्छे कार्यों में लगने में सहायक होइए।

      बाधा दूर भगा दो सारी । खिले मनोकामना फुलवारी।।
      शुद्ध मन दुःखी जन पढे चालीसा । शनि सहाय हों सहित जगदीसा।।
     बढ़ै दाम जस पानी बरखा । परखों शनि शनि तुम परखा।।

हे शनिदेवजी ! हमारी सारी बाधाओं को दूर भगा दो और मनोकामनाओं को
पूर्ण करो । जो दुखी व्यक्ति पूर्ण भक्तिभाव से यह चालीसा पढ़ते हैं उनकी सहायता
स्वयं भगवान और शनिदेवजी करते हैँ । जिस प्रकार वर्षा ऋतु मेँ नदियों और
तालाबों में पानी स्वयं बढ जाता है, ठीक उसी प्रकार इस चालीसा का पाठ करने
पर शनिदेव की कृपाएं स्वयं ही मिलने लग जाती हैं।

दोहे   चालिस दिन के पाठ से, मन्द देव अनुकूल।
        रामकृष्ण ' कष्ट घटैं सूक्ष्म अरु स्थूल।।
        दशरथ शूरता स्मरण, मंगलकारी भाव।
        शनि मंत्र उच्चारित, द्रुःख विकार निर्मूल।।